मंगलवार, 1 मार्च 2016

गीता और प्रबंधन के मंत्र-१

अध्याय-१

जीवन के हर क्षेत्र में प्रबंधन की आवश्यकता होती है, चाहे वह सामाजिक जीवन हो अथवा व्यावसायिक|

कुशल प्रबंधन, जटिलताओं को सरलीकृत कर देता है और अपेक्षकृत बड़े लक्ष्यों तक सुगमता से पहुँचा जा सकता है| प्रबंधन के अध्ययन का उद्देश्य भी यही है|
कुशल प्रबंधन की मूलभूत समस्या ही है---

प्रभावी प्रबंधन
कुशलता अथवा योग्य कर्मियों की खोज

और इस प्रश्न का उत्तर है--- निज प्रबंधन अर्थात् स्वयं का प्रबंधन

संघर्ष, तनाव, कम उत्पादकता, उत्साह का अभाव एवं सोच में नकारात्मकता से बचने के लिये अथवा इन समस्याओं के स्थायी समाधान के लिये, ऩये प्रबंधन के मापदण्ड उग्रता के साथ, उच्च दबाव में अधिक बोझ और भौतिक उन्नति के सपनों के पंखों के सहारे, उच्च लक्ष्यों को प्राप्त तो कर पा रहें हैं, परन्तु इस तनाव के प्रभाव से ग्रस्त युवाओं को मानसिक रोगी भी बना रहे हैं|

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और जब वह एक नोट कमाने या छापने की मशीन की तरह कार्य करने लगता है, तो उस मनुष्य की मानवीय भावनायें कुंठित हो जाती हैं|

गीता मनुष्य के भीतर छिपी ऊर्जा को बाहर लाने का सशक्त माध्यम साबित हो रही है| गीता युद्धभूमि में भी स्मरण अर्थात् योग अर्थात् स्थिर बुद्धि रखने की वह कला सिखाती है, जिसका अभ्यास कर लेने वाला मनुष्य बड़ी से बड़ी समस्या का सामना भी बिना विचलित हुये कर सकता है|

गीता के एकसूत्र “मामनुस्मर युद्ध्य च” में जब इतना बड़ा प्रबंध का मंत्र छिपा है तो फिर आप अंदाज भी नहीं लगा सकते कि गीता के ७०० श्लोक हमें चेतना के किस शिखर पर ले जायेंगे|

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