मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

हे गोविंद राख शरण अब तो जीवन हारे!

हे गोविंद राखो शरण अब तो जीवन हारे!

नीर पियन हेतु गये, सिंधु के किनारे, सिंधु बीच बसत ग्राह धरि चरण पछारे, नाक कान डूबन लगे, कृष्ण को पुकारे!

हम मनुष्यों की यही दशा है, जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संसार में भागते भागते इस की चमक दमक में खो जाते हैं और जब शरीर साथ छोड़ने लगता है शरीर की शक्तियां साथ छोड़ने लगते हैं रोग शरीर को पकड़ लेते हैं तब हमें ईश्वर की याद आती है हमने अपने जीवन को जिस चीज के पीछे गंवा दिया वह तो स्वयं ही व्यर्थ था।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी कहते हैं:

माणिक मुक्ता कर ते देहीं, नाच किरिच बदले में लेहीं।

हम अनमोल जीवन की अनमोल सांसों को व्यक्ति सांसारिक ग्लोबल में फंसकर गंवा देते हैं। 
इस संसार का सत्य है क्या न तो शरीर, न  शारीरिक संबंध सत्य हैं, न शारीरिक व्यसन सत्य हैं, न ही सांसारिक संपत्तियां धन वैभव ऐश्वर्य सत्य हैं। 

सब कुछ नश्वर और सब कुछ के रहते हुए भी, जब सांसे छूटने लगते हैं, एक सांस के जाने के बाद उसका वापस लौट कर आना मुश्किल होने लगता है, तब इन सारे संसारी आकर्षणों  की क्या उपयोगिता रह जाती है।

फिर भी जब तक जीवन रहता है, जीवन के दायित्व रहते हैं और उन दायित्वों को पूरा करने और सांसारिक संबंधों के समान अपने वैभव को बढ़ाने या उनसे अधिक वैभव को पाने की लालसा, मनुष्य के मन में समाई ही रहती है और इसी लालसा को हम माया कह सकते हैं।

कबीरदास जी कहते हैं- माया महा ठगनी मैं जानी!

यह संसार ऐसा ही है बड़े-बड़े राजा और रंक, सब इस देह को छोड़कर इसी संसार की मिट्टी में या तो दफना दिए जाते हैं या फिर जला दिए जाते हैं पंच तत्वों से बना हुआ शरीर इसी पंचतत्व में विलीन हो जाता है और चेतना यानी आत्मा अपने मूल स्थान को वापस लौट जाती है। 

कैसे हम इस माया के चक्र से मुक्त हो सकते हैं यह प्रश्न जरूर आपके मन में उठ रहा होगा?

 अपने परमपिता यानि परमात्मा का सतत स्मरण करना, उनकी लीलाओं का स्मरण करना, और संसार के सब कर्म करते हुए भी मन को परमात्मा के चरणों में लगाए रखना, माया के चक्कर में फस कर, दुर्भावना और दुष्कर्म से स्वयं को बचाए रखना। हर पीड़ित व्यक्ति या प्राणी चाहे वह मनुष्य हो या पशु उसकी मदद करना।

जीवन में सार्थक क्या है और निरर्थक क्या है यह जानना  ज्ञान है इसीलिए को क्षीर नीर विवेक भी कहते है। सत्य और असत्य को पहचानना, और सत्य से प्रेम करना असत्य से वैराग्य करना ही संन्यास है।

संन्यास के लिए घर गृहस्थी सुख का त्याग आवश्यक नहीं है, इन सबके बीच रहकर भी, मन को इन आकर्षणों से मुक्त रखने का प्रयास साधना है, और जब मन विरक्त हो जाए, तो यही सबसे बड़ा वैराग्य और संन्यास है।

न जग त्यागो हरि को भूल जाओ जिंदगानी में, रहो दुनिया में तुम ऐसे, कमल रहता है पानी में!

यह दुनिया बड़ी विचित्र है, समझ में ही नहीं आता कि क्या हो रहा है क्यों हो रहा है कैसे हो रहा कब हम कहां पहुंच जाते हैं कब क्या करने लगते हैं यह हमें खुद नहीं मालूम होता फिर भी हम स्वयं को सबसे बड़ा बुद्धिमान, ज्ञानवान, सामर्थ्यवान मानते रहते हैं हैं।

सबहिं नचावत राम गुसाईं,

नाचहिं नर मरकट की नाईं।

सारे संसार के लोग दुनिया में उसी तरह से नाच रहे हैं जैसे कोई मदारी बंदर को नचाता है, उसी तरह परमात्मा हम सबको नचा रहा है। पस

नचाता है हमको कोई नाच जैसे,
मगर सामने वह मदारी नहीं है।

इसलिए सदैव सावधान रहते हुए बुरी भावना बुरे विचार बुरे कर्म से स्वयं को बचाते हुए सबको अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देते हुए जैसे पुष्प खुशबू भी खेलता रहता है सुगंध देता रहता है लोगों को वैसे ही आप लोगों को मुस्कुराहट बांटिए प्यार बांटते रहिए, आनंद दीजिए, कष्ट मत दीजिए, ज्ञान बांटिये, जितनी मदद आप लोगों की कर सकें करिये, किसी के प्रति मन में  दुर्भाव मत रखिए, यही सफल जीवन का मंत्र है, यही साधना है, यही तपस्या है, यही संन्यास है, और यही योग है, यही कर्म योग है।