सम्बोधित करते हुये कहा कि, “यदि असत्य अधर्म के चक्रव्यूह ने, तुम्हारे जीवन को घेर भी रखा है, तो तुम्हें उस चक्रव्यूह को काट कर बाहर आना ही होगा। धर्म की शक्ति को भूल कर, अधर्म की शक्ति को न बढ़ाओ।
अलग अलग रूपों में बहती हुई नदियाँ, जब सागर से मिलती हैं, तब ही वे सागर की शक्ति को प्राप्त कर पाती हैं। अलग-अलग रूपों, अलग अलग भागों और नामों से बँटा हुआ धर्म, जब एक रूप, एक नाम पा जायेगा, तब ही धर्म, तुम्हारी शक्ति बन पायेगा। अगर तुम ही भय करोगे, धर्म की राह पर चलने के लिये, तो तुम्हारे साथ हो रहे अधर्म को रोकने के लिये कौन आ पायेगा? काँटों से भय करके क्या गुलाब खिलता नहीं या अपनी सुन्दरता और महक को ही खो देता है? असत्य अधर्म से भय करके, क्या तुम अपने जीवन को साँस ही नहीं लेने दोगे या उसकी सुन्दरता और शक्ति को ही खो दोगे। भय से प्रकाश में न आ कर अंधकार में छिपने से क्या समझते हो, कि असत्य-अधर्म तुम्हारा साथ छोड़ देगा? ऐसा कुछ भी नहीं होगा, बल्कि वह तो तुम्हारे ही जीवन का हिस्सा बन जायेगा। और तुम इस असाध्य बीमारी को लेकर न तो अपने जीवन के महत्व को ही समझ पाओगे और न ही उसके अर्थ को, और न ही पहचान पाओगे, जीवन की सुन्दरता और उसकी शक्ति को।
अनेकों प्रकार की मूर्तियों के रूप में धर्म की स्थापना करके, धर्म को अनेकों नाम देकर, हर दिन पूजा करके भी क्या मिला तुम्हें, अपनी पूजा से? तुम कह दोगे कि तुम्हें यश मिला, धन मिला, महल जैसा घर मिला। लेकिन क्या तुमने सोचा कि क्या वो ही धन, तुम्हारा महल अपने साथ-साथ धीरे से क्या, तुम्हारे ही लिये भय और अशांति नहीं ले आया?
धर्म तो नाम है-निर्भयता का, शांति और आत्मिक शक्ति का। तो तुम्हें अपनी पूजा से क्या शंाति, निर्भयता और आत्मिक शक्ति मिली? तो क्या धर्म में शक्ति नहीं है या तुम्हारी पूजा में ही शक्ति नहीं थी, कि धर्म तुम्हारी आत्मिक शक्ति बन पाता; या फिर तुम धर्म के सही रूप को पहचान ही नहीं पाये थे और केवल मूर्ति में धर्म को देख कर स्वयं को धार्मिक और भक्त मान बैठे थे और धन के रूप में अपने कर्मकांडी पूजा के फल, भय और अशांति को खरीद कर, अपने को धन्य मान बैठे थे।“